Section – A Ans - संत सुन् दर दासजी Ans - प्र े माख् यानक काव् यधारा ननर् ु ु ण काव् य धारा की ही एक शाखा है। सूफी काव्यधारा का अध्ययन - मनन क े आधार पर यह कहा जा सकता है कक इसकी परम् परा इसका काव् यधारा क े सशक् त और सर् ु प्र धान महाकवर् मलिक मुहम् मद जायसी द् र् ारा शुरू हुई | उनका सर् ोत् कृष् ट महाग्र न् थ ' पद्मार्त ' इस काव्य - परम् परा की सर् ोच् च कृवि है प्र े माख्यानक काव्य को प्र े माख्यान काव्य , प्र े मकथानक काव्य , प्र े म काव्य , प्र े ममार् ी (सूफी) काव् य आदद नामों से भी पुकारा जा ता है। प्र े माख्यानक काव्य िोक प्र चलित प्र े म कथाओं को आधार बनाते हैं। कथाऐं ऐनतहालसक , अधुऐनतहालसक , िौककक या पौराणणक है। ऐनतहालसक कथाओं में भी कल्पना का इतना संभार है कक उसकी ऐनतहालसकता संददग्ध हो जाती है। कवर् यों ने प्र ायः िोक कथा र् ृ ि में घटना से घटना को जोड़कर ऐसी कथा िड़ी तैयार की है कक उससे रोमांचक कथा संसार तैयार होता है। कथाओं क े काल् पननक वर् स् तार की बजह से कहीं कहीं असंतुिन भी आ र् या है। A ns - रीनतकािीन काव्य में ब्र ज भाषा की प्र धानता रही है। Ans - आधुननक दहन् दी नाटक का आरम् भ यानन आधुननक दहन्दी में रंर्मंचीय नाटकों का आरं भ भारतेन् दु हररश् चंद्र से माना जाता है। Section – B Question 4 - छायार्ादी काव्यधारा का सं क्ष े प में पररचय दीजजए A ns - दहन् दी सादहत् य क े आधुननक चरण मे द् वर् र् े दी युर् क े पश् चात दहन् दी काव्य की जो धारा वर् षय र् स् तु की दृ जष् ट से स् र् च् छंद प्र े मभार् ना , पकृनत मे मानर्ीय किया किापों तथा भार् - व् यापारों क े आरोपण और किा की दृ जष्ट से िाक्षणणकता प्र धान नर्ीन अलभव्यंजना - पद्धनत को िेकर चिी , उ से छायार्ाद कहा र् या। प्र कृनत पर चेतना क े आरोप को भी छायार् ाद कहा र् या है। छायावाद दहन्दी सादह त् य क े रोमांदटक उत्थान की र् ह काव्य - धारा है जो िर्भर् ई.स. 1918 से 1936 तक की प्र मुख युर् र् ाणी रही। जयशंकर प्र साद , सूयुकान् त त्र िपाठी ' ननरािा ' , सुलमिानंदन पंत , महा देर्ी र् माु , पंडित माखन िाि चतुर् े दी इस काव्य धारा क े प्र नतननधध कवर् माने जाते हैं। छायार्ाद नामकरण का श्र े य मुक ु टधर पाण् िेय को जाता है। छायार् ाद क े प्र मुख कवर् जयशंकर प्र साद ने छायार्ाद की व् याख्या इस प्र कार की हैं " छायार्ाद कवर्ता र् ाणी का र् ह िार्ण्य है जो स् र् यं मे मोती क े पानी जैसी छाया , तरिता और युर् ती क े िज् जा भूषण जैसी श्र ी से संयुक् त होता है। यह तरि छाया और िज्जा श्र ी ही छायार्ाद कवर् की र् ाणी का सौंदयु है।" प्रकृनत प्र े म , नारी प्र े म , मानर्ीकरण , सांस् कृनतक जार् रण , कल्पना की प्र धानता आदद छायार् ादी काव् य की प्र मुख वर् शेषताएं हैं। छायार् ाद ने दहंदी में खड़ी बोिी कवर्ता को पूणुतः प्र नतजष् ठत कर ददया। इसक े बाद ब्र जभाषा दहंदी काव्य धारा से बाहर हो र् ई। इसने दहंदी को नए शब्द , प्र तीक तथा प्र नतत्रबंब ददए। इसक े प्र भार् से इस दौर की र् द् य की भाषा भी समृद् ध हुई। इसे ' सादहजत् यक खड़ीबोिी का स् र् णुयुर् ' कहा जाता है। छायावादी काव् य की मुख् य ववशेषताएं : - 1. व् यक्तत वाद की प्र धानता - छायार्ाद मे व् यजक्तर्त भार्नाओं की प्र धानता है। र् हााँ कवर् अपने सुख - दुख एर् ं हषु - शोक को ही र् ाणी प्र दान करते हुए खुद को अलभव्यक्त करता है। 2. सौन् दयाानुभूतत - यहााँ सौन्दयु का अलभप्राय काव्य सौन्दयु से नही , सूक्ष् म आतंररक सौन्दयु से है। बा ह्र ा सौन्दयु की अपेक्षा आंतररक सौन्दयु क े उद्घाटन मे उसकी दृ जष्ट अधधक रमती है। सौन्दयोपासक कवर्यों ने नारी क े सौन्दयु को नाना रंर्ो का आर्रण पहनाकर व् यक्त ककया है। 3. श् र ं गार भावना - छायार् ादी काव् य मुख् यतया श्र ृ ं र् ारी काव् य है ककन् तु उसका श्र ृ ं र् ार अतीजन् द्र य सूक्ष् म श्र ृ ं र् ार है। छायार् ाद का श्र ृ ं र् ार उपभोर् की र् स् तु नही , अवपतु कौतुहि और वर् स् मय का वर् षत है। उसकी अलभव् यंजना मे कल् पना और सूक्ष् मता है। 4. प्र करतत का मानवीकरण - प्र कृनत पर मानर् व् य जक्ततत्र् का आरोप छायार्ाद की एक प्र मुख वर् शेषता है। छायार् ादी कवर् यों ने प्र कृनत को अनेक रू पों मे देखा है। कहीं उसने प्र कृनत को नारी क े रू प मे देखकर उसक े सूक्ष् म सौन् दयु का धचिण ककया है। 5. वेदना एवं करूणा का आधधतय - ह्र दयर् त भार् ों की अलभव् यजक् त की अपूणुता , अलभिाषाओं की वर्फिता , सौंदयु की नश्र्रता , प्र े यसी की ननष् ठुरता , मानर्ीय दुबुिताओं क े प्र नत संर् े दनशीिता , प्र कृनत की रहस् यमयता आदद अनेक कारणों से छायार्ादी कवर् क े काव्य मे र् े दना और करूणा की अधधकता पाई जाती है। 6. अज्ञात सत्ता क े प्र तत प्र े म - अज्ञात सिा क े प्र नत कवर् मे ह्र दयर्त प्र े म की अलभव्यजक्त पाई जाती है। इस अज्ञात सिा को कवर् कभी प्र े यसी क े रू प मे तो कभी चेतन प्र कृनत क े रू प मे देखता है। छायार्ाद की यह अज्ञात सिा ब्र ह् म से लभन्न है। 7. जीवन - दशान - छायार्ादी कवर्यों ने जीर्न क े प्र नत भार्ात्मक दृ जष्टकोण को अपनाया है। इसका मूि दशुन सर् ाुत् मर् ाद है। सम् पूणु जर् त मानर् चेतना से स् पंददत ददखाई देता है। 8. नारी क े प्र तत नवीन भावना - छायार् ाद मे श्र ृ ं र् ार और सौं दयु का संबंध मुख् यतया नारी से है। रीनतकािीन नारी की तरह छायार् ादी नारी प्र े म की पूनतु का साधनमाि नही है। र् ह इस पाधथुर् जर् त की स् थूि नारी न होकर भार् जर् त की सुक ु मार देर् ी है। 9. अभभव्यंजना शैली - छायार्ादी कवर्यों ने अपनी भार्नाओं को व् यक्त करने क े लिए िाक्षणणक , प्र तीकात्मक शैिी को अपनाया है। उन्होंने भाषा मे अलभधा क े स् थान पर िक्षणा और व् यंजना का प्र योर् ककया है। Ans - दहन्दी सादहत्य में राष्रीय चेतना की भार्ना अनंत काि से रही है। राष्रीय वर्चार धारा अवर्रि र् नत से दहंदी में बहती आई है। इसने राष्रीय चेतना क े प्र चार प्र सार में अपना महत् र् पूणु योर् दान ककया है। आददकाि क े चारण कवर्यों में चाहे र् े ककसी राजाश्रय में रहते थे , िेककन जन जीर्न में राष्रीय एर्ं जातीय भार्नाओं से ओतप्रोत नर् भार्ों का संचार करना ही उनकी सजुना का मूि िक्ष् य एर् ं उद् देश् य हुआ करता था। भजक् तकाि में सादहत् य का मूि उद् देश् य जीर् ात् मा और परमात् मा तथा भक् त और भर् र् ान ् क े संबंधों को उजा र् र करना था िेककन उसमें भी राष् रीयता का स् र् र र् ू ं जता सुनाई पड़ता था। रीनतकाि क े श्र ृ ं र् ार और वर् िासतामय पररजस् थनतयों का धचिण करने र् ािे कवर्यों क े बीच भी राष्रीय चेतना का सन्देश देने र् ािे कवर्यों की कमी नहीं थी। भूषण ने छिसाि और लशर् ाजी जैसे राष् र नायकों को अपने काव् य का वर् षय बनाया और राष् रीयता की धूलमि पररजस् थनत में भी राष् रीय प्र े म की आशाभरी ककरण त्र बखेरी। भूषण ही नहीं र् ोरेिाि , र् ु रु र् ोवर् न् द लसंह और सेनापनत जैसे कवर्यों की र् ाणी भी राष्रीय चेतना प्र दान करती है। वर्योर्ी हरी , मैधथिीशरण र् ु प् त , माखनिाि चतुर् े दी , सुभद्र ाक ु मारी चौहान , जयशंकर प्र साद , श् याम नारायण पाण्िेय , रामधारी लसंह ददनकर , लशर्मंर्ि लसंह सुमन आदद कवर् यों ने अपनी रचनाओं क े माध् यम से राष्रीयता की भार्ना का प्र चार ककया। देश को एक नयी चेतना प्र दान की। आधुननक काि क े अधधकााँश कवर् यों ने राष् रीय भार् ना से प्र भावर् त होकर राष्रप्रेम सम्बन्धी रचनाएं लिखी है। इसमें अतीत भारत की र् ौरर्मयी झांकी है। राष्र नायकों की र् ीरता और त् यार् का धचि है। प्र साद क े नाटकों , उनकी कहाननयां और र् ीतों में राष्रीयता की अवर्रि धारा तरंधर्त होती है। सुभद्र ाक ु मारी चौहान ने र् ीरांर् ना झांसी की रानी को अपने काव् य का वर् षय बनाकर नाररयों में भी एक नयी उमंर् और नया जोश भर ददया। उनकी कवर्ता र् ीरों का क ै सा हो र् संत ? राष्रीय भाषा की एक अमर रचना है। इस प्र कार जब हम दहंदी सादहत्य क े आददकाि से आज तक क े सादहत्य का अर् िोकन करते हैं तब इस ननष् कषु पर पहुाँचते हैं कक राष् रीय चेतना की भार्ना एक पार्न सररता की तरह प्र र् ादहत होती रहती है। Sect ion – C Ans - आधुननक र् दधी वर्धाओं में एक वर्धा “ नाटक ” है । दहन् दी को उिराधधकार रू प में संस् कृत तथा प्र ाकृत की प्र चुर नाट् य - सादहत्य की संपवि प्र ाप्त थी , ककन् तु इसका प्र योर् अनेक कारणों से उन् नीसर् ीं शताब् दी से पूर् ु न हो सका। इसलिए दहन् दी - नाट्य - परंपरा का वर् कास वर् िंब से हुआ। मुसिमानों क े आिमणों क े कारण राजनैनतक अशांनत और उथि - पुथि रही । इस्िाम - धमु क े प्र नतक ू ि होने क े कारण ना टकों को मुर् िकाि में उस प्र कार का कोई प्र ोत् साहन नहीं लमिा जजस तरह का प्र ोत् साहन अन् य किाओं को मुर् ि - शासकों से प्र ाप् त हुआ। यही र् जह है कक मुर् ि - शासन क े दो ढाई सौ र् षों में भारतीय - परंपरा की अलभनयशािाओं अथर्ा प्र े क्ष ार्ारों का सर्ुथा िोप ही हो र् या। अलभनयशािाओं क े अभार् में नाटकों का वर्कास ककस प्र कार हो सकता था ? यही कारण है : कक भारतेन् दु जी से पूर् ु दहन् दी नाट् य - किा अवर्कलसत ही रही। इसक े अनतररक्त नाटकीय कथोपकथन क े समुधचत वर् कास क े लिए जजस वर् कलसत र् द् य की जरूरत थी , उसका भी इस युर् में अभार् था। दहन् दी - नाट्य - परंपरा का वर् कास ददखाने क े लिए उसका काि - वर्भाजन ननम्न प्र कार कर सकते हैं: 1. पूर् ु भारतेन् दु युर् (सन ् 1867 से पूर् ु ) , 2. भारतेन् दु युर् (1867 से 1905), 3. संिांनत युर् ( 1905 से 1915), 4. प्र साद युर् (सन ् 1915 से 1934) और 5. प्र सादोिर युर् (सन ् 1934.....) पूवा भारतेन् दु युग - भारत में अंग्र े जी का प्र भुत् र् स् थावपत होने पर उन् हों ने अपनी सुवर् धा क े लिए यहााँ अनेक र् स् तुओं को आरंभ ककया। उन् हों ने अपने मनोरंजन क े लिए अलभनयशािाओं का संयोजन ककया , जो धथयेटर क े नाम से वर्ख्यात हुई। इस ढंर् का पहिा धथयेटर प् िासी क े युद् ध से पूर् ु किकिा में बन र् या था , दूसरा धथयेटर सन ् 1795 ई. में ' िेफ े ि फ े अर ' नाम से खुिा था। इसक े बाद सन ् 1812 ई. में ' एथीननयम ' और दूसरे र् षु ' चौरंर्ी ' धथयेटर खुिा। इस प्र कार पाश्चात्य - नाट्यकिा क े संपक ु में सबसे पहिे बंर्ाि आया और उसने उनक े धथयेटर क े अनुकरण पर अपने नाटकों क े लिए रंर् मंच को नया रू प ददया। भारतेन् दु - युर् से पूर् ु क े नाटकों को नाटकीय दृ जष् ट से सफि नहीं कहा जा सकता। यह क ु छ कवर् यों का नाटक लिखने का प्र या स - माि था , िेककन र् े पद्य - बद् ध कथोपकथन क े अनतररक् त क ु छ नहीं कहे जा सकते । इन नाटकों में क ु छ अनूददत और क ु छ मौलिक थे। अनूददत नाटकों में क ु छ तो नाटकीय काव् य हैं तथा क ु छ र् द् य - पद् य लमधश्र त नाटक । बनारसीदास जैन द् र् ारा अनूददत ' समयसार ' नाटक और हृ दयराम द् र् ारा अनूदद त ' हनुमन् नाटक ' आदद नाटकीय काव् य हैं। मौलिक नाटकीय काव् यों में प्र ाणचंद्र चौहान कृत ' रामायण महानाटक ' तथा ' कृष् णजीर् न ', िक्ष्मीराम - कृत करु णाभरण ' आदद की र् णना की जाती है प्र ायः देखा र् या है कक हर सादहत्य में नाटकों की उत्पवि इसी प्र कार नाटकीय काव् यों से हुई। किात् मक दृ जष् ट से तत् कािीन अनूददत नाटकों में ' प्र बोध चंद्रोदय ' का सर् ु प्र थम स् थान है। इसका अनुर् ाद सन ् 1643 ई. में हुआ था। दूसरा नाटक ‘ आनंद रघुनंदन ' है । इसका रचनाकाि सन ् 1700 ई. में माना जाता है । किा की दृ जष्ट से यह उच्चकोदट की रचना नहीं है। इन सभी मौलिक और अनूददत नाटकों की भाषा ब्र जभाषा है। इन सभी नाटकों को नाटक न कहकर नाटकीय - काव् य कहा जा सकता है । इसी परंपरा में आर् े चिकर सन ् 1841 ई. में भारतेन् दु क े वपता र् ोपािचंद्र का ' नहुष ' और सन ् 1861 ई. में राजा िक्ष्मणलसंह - कृत ' शक ु ं तिा ' उल्िेखनीय हैं। ‘ नहुष ' में नाट कीय तत्र् अर्श्य लमिते हैं। अतः दहन् दी नाटकों का आरंभ यहीं से मानना चादहए । उपयुुक् त वर्र्ेचन से स् पष्ट है कक दहन्दी - नाटकों का सूिपात संस् कृत की परंपरा से हुआ। आर्े चिकर दहन्दी - नाट्य - सादहत् य क े इनतहास में भारतेन् दु - युर् आरंभ होने पर जब दहन्दी - नाटकों का संपक ु अंग्र े जी नाटकों से स् थावपत हुआ , तब संस् कृत की नाट्य परंपरा क े स् थान पर अंग्रेजी नाट्य परंपरा ने अपना स् थान बना लिया। भारतेन् दु युग - दहन्दी - नाटकों की अवर् जच् छन् न परंपरा भारतेन् दु जी से शुरू होती है। आपक े नाटक अलभनेय होते थे। इस समय नाटक की प्र ाचीन परंपराओं का त् यार् होने िर् ा था। भारतेन् दु ने अपने वपता क े अनुकरण पर नाटकों क े अनुर् ाद ककये और मौलिक नाटक भी लिखे । उन् हों ने अपने नाटकों को प्र ाचीन िक्ष णों क े अनुक ू ि ही लिखने का प्र यत् न ककया था , पर उनक े नाटकों पर स् पष्टतः बंर्िा तथा फारसी नाटक - शैिी की छाप है। उन्होंने इन शैलियों को जान - बूझकर ग्र हण ककया हो ऐसी बात नहीं है , पर इतना तो अर्श्य है कक र् े ककसी न ककसी रू प में उनसे प्र भावर्त अर्श्य रहे और उसी दृ जष्ट से उन्होंने अपने नाटकों को रंर् मंच क े उपयुक् त बनाने का प्र यत् न ककया । पररणामस् र् रू प नाटकों की भारतीय परंपरा भारतेन् दु क े नाटकों में पाश्चात्य परंपरा से अछ ू ती न रह सकी । इस प्र कार उनक े नाटकों ने सामनयक बनकर परर्ती नाटककारों क े सामने आधुननक दहन् दी - नाटकों की रू परेखा प्र स् तुत की और उस ददशा में दूसरों को बढ़ ने क े लिए प्र े ररत ककया। इस युर् में अंग्र े जी , बंर् िा और संस् कृत क े नाटकों क े सफि अनुर् ाद हुए। भारतेन् दु जी ने सन ् 1925 ई. में प्र थम अनूददत नाटक ' वर् द् या सुंदर ' दहन् दी को ददया। इसक े पश् चात ् मौलिक नाटक ‘ र् ै ददकी दहंसा दहंसा न भर्नत ', ' प्र े म योधर्नी ', ' सत्य हररश्चंद्र ', ' चंद्रार्िी ', ' भारत दुदुशा ', ' नीिदेर्ी ', ' अंधेर नर्री ' आदद तथा अनूददत नाटक ' वर् द् या सुन् दर ', ' मुद्र ाराक्ष स ' आदद नाटक भारतेन् दु जी ने लिखे। भारतेन् दु जी क े समकािीन िेखकों में बद्र ीनारायण ' प्र े मधन ' का ‘ भारत सौभाग्य '; प्र तापनारायण लमश्र क े ‘ कलि प्र भार् ', ' र् ौ - संकट ', ' त्र िया तेि हमीर हठ चढ़ े न दूजी बार ' राधाकृष् णदासजी क े ' महारानी पद्मार्ती ' तथा ' महाराणा प्र ताप ' क े शर् भट्ट क े ' सज् जादसम् बुज ' ' समर्ाद सौसन ' आदद नाटक उल्िेखनीय हैं। इनक े अनतररक्त श्र ीननर्ासदास क े ' प्र णयी प्र णय ', ' मयंक मंजरी ': सालिर्राम का ‘ माधर्ानि कामक ं दिा ' आदद नाटक भी पयाुप् त ख् यानत प्र ाप् त कर चुक े हैं। इनमें से अधधकांश नाटकों का किात् मकता की दृ जष् ट से कोई मूल् य नहीं है। भारतेन् दु - युर् में संस् कृत क े प्र ायः सभी अच् छे नाटकों क े अनुर् ाद हुए । भर् भूनत कृत ' उिर रामचररत ',' मािती माधर् ' तथा ' महार्ीर चररत ' का दहन् दी में अनुर् ाद हुआ । सन ् 1898 ई. में िािा सीताराम ने कालिदास क े ‘ मािवर्काजग्न लमि ' का दहन्दी - अनुर् ाद ककया। इसक े अिार् ा ' र् े णी संहार ', ' मृच् छकदटक ', ' रत्नार्िी ' तथा ' नार्ानंद ' क े भी दहन् दी अनुर् ाद हुए। इन संस् कृत क े नाटकों क े अनतररक् त बंर् िा से भी नाटकों क े अनुर् ाद हुए । माइक े ि मधुसूदन कृत ' पद्मार्ती ' तथा ' कृष् णा मुरारी ' आदद क े सफि अनुर् ाद सामने आये। इसी समय अंग्र े जी से भी अनुर् ाद् की परंपरा चि पड़ी । शेक् सवपयर क े मचेन् ट ऑफ र् े ननस ' का ' दुिु भ बंधु ', ' र् े ननस नर्र का सौदार्र ' तथा ' र् े ननस नर्र का व् यापारी ', ' कमेिी ऑफ एरसु ' का भ्र मजािक ', ' एज यू िाइक इट ' का ‘ मन भार्ना ' तथा ' रोलमयो एंि जूलियट ' का ' प्र े म - िीिा ', ' मैकबैथ ' का ' साहसेंद्र साहस ' क े नाम से अनुर् ाद हुआ। इस तरह नाटक - ननमाुण की दृ जष् ट से भारतेन् दु - युर् में नाटकों क े प्र ाचीन वर् षयों की पुनरार् ृ वि ही नहीं हुई , अवपतु कनतपय ऐसे नर् ीन वर् षयों को भी जन् म ददया र् या , जो भार्ी दहन्दी - नाटककारों क े लिए पथ - प्र दशुक बन र् ये। इसमें संदेह नहीं कक कई कारणों से यह काि नाटक - रचना क े लिए क्ष णणक ही लसद् ध हुआ और अर्िे दस र् षों में ककसी महत् र् पूणु नाटक की रचना न हो सकी , कफर भी इसी काि ने प्र साद - युर् को जन् म ददया और यदद यह कहा जाये कक भारतेन् दु - काि में ही प्र साद जी वर् द् यमान थे तो अत् युजक् त न होर् ी। संक्ांतत - युग - प्र साद - युर् क े आरंभ होने क े पहिे यह दस र् षु का काि बड़े महत्र् का है । बंर् - भंर् क े प्र श् नों को िेकर समस्त देश में राष्रीय - आंदोिन हुए। इसका नाट् य - सादहत्य पर पयाुप्त प्र भार् पड़ा। इन दस - ग् यारह र् षों का नाट्य - सादहत् य भारतेन् दु - युर् क े नाट् य - सादहत्य से कई बातों में लभन्न हो र् या। इसका स् पष्ट प्र भार् ऐनतहालसक , प्र े म - प्र धान तथा सम स् यामूिक नाटकों पर पड़ा। किा की दृ जष्ट से नाटकों में ककसी तरह की वर्शेषता न आ सकी । पौराणणक कथानकों को िेकर जो नाटक लिखे र् ये , उनमें महार् ीरलसंह कृत ' निदमयंती ', जयशंकर प्र साद कृत ' करुणािय ' और बद्र ीनाथ भट् ट कृत ' क ु रु र् नदहन ' अपना प्र मुख स् थान रखते हैं । ऐनतहालसक नाटकों में शालिर् राम कृत ' क ु रु - वर्िम ', र्ृंदार् निाि र् माु कृत ' सेनापनत उदाि ' और बद्र ीनाथ भट् ट कृत ' चंद्र र् ु प् त ' और ' तुिसीदास ' अधधक प्र लसद्ध हैं। इन नाटकों में ऐनतहालसक घटनाओं क े साथ भारतेन् दु - युर् की अपेक्ष ा ऐनतहालसक र् ातार् रण का धचिण अधधक सफिता से ककया र् या । समस्या - प्र धान नाटक सामाजजक और राष्रीय वर्चारों का समन्र्य िेकर उपजस् थत हुए। नाटकों में लमश्र - बंधुओं की सन ् 1915 ई. की ' नेिोन्मीिन ' रचना महत् र् पूणु है । प्र हसनों में बद्र ीनाथ भट् ट कृत ' चुंर् ी की उम् मीदर् ारी ' अधधक प्र लसद्ध है । इस संिांनत युर् में अनूददत नाटकों की परंपरा भी चिती रही। अंग्र े जी , बंर्िा और संस् कृत से सफि अनुर् ाद होते रहे । बंर् िा से द् वर् जेन् द्र नाथ राय क े नाटकों क े अनुर् ाद हुए । इस प्र कार जब दहन् दी - नाटक संस् कृत तथा बंर् िा से अनुप्र ाणणत हो रहे थे , उसी समय रंर्मंच क े क्ष े ि से पारसी नाटक हमारे सामने आए । पारसी नाटक क ं पननयों ने आकषुक और मनोरंजक बनाकर हमारे सामने अपने नाटक उपजस् थत ककये। ये नाटक सादहत् य और संस् कृनत की दृ जष् ट से ऊ ं चे न थे , तथावप उनमें नाट्यकिा का आकषुण तो था ही। दहन्दी नाट्य - किा भी इस ओर झुकी । दहन् दी में इ स प्र कार क े नाटक उपजस्थत करने का श्र े य नारायण प्र साद बेताब , पं. राधेश् याम कथार् ाचक और हरेकृष् ण जौहर को है। संिांनत - युर् में नाटकों क े क्ष े ि में कोई वर् शेष उन् ननत तो नहीं हुई पर भाषा की दृ जष्ट से खड़ी बोिी का प्र चिन हो र् या। वर्षय - र् स् तु में धालमुकता का स् था न सामाजजकता और ऐनतहालसकता ने िे लिया। नाटककारों का दृ जष्टकोण यथाथुर् ाद से प्र भावर् त हुआ। इस प्र कार संधध - काि क े नाट्य - सादहत्य में ऐसा पररर् तुन हुआ जो आर् े चिकर प्र साद - युर् को महत् र् पूणु बनाने में सहायक हो सका। प्र साद - युग - प्र सादजी ने दहन्दी - नाटकों को एक नई ददशा तथा नई र् नत प्र दान की। उनक े मौलिक नाटकों ने न क े र् ि िोर्ों क े बंर्िा क े प्र नत आकषुण का ही शमन ककया र् रन ् उच् चकोदट का नाट् य - सादहत्य भी दहन्दी को ददया। प्र साद - युर् नाट् य सादहत् य की कई धाराओं को िेकर सामने आया। इस प्र कार भारतेन् दु काि में जजन नाटकीय प्र र् ृ वियों का बीजारोपण हुआ था , र् े संधधकाि में अंक ु ररत होकर प्र साद - युर् में कनतपय नर् ीन चेतनाओं और नर् ीन वर् चारधाराओं को िेकर आर्े बढ़ीं । प्र साद - युर् में नाटकों पर शेक् सवपयर की नाट् य - किा का वर् शेष प्र भार् पड़ा। दहन् दी क े नाटककारों को प्र ारंभ में संस् कृत नाट् य - सादहत्य से जो प्र े रणा लमिी , र् ह भारतेन् दु काि में पाश् चात् य नाट् य - किा से आंलशक रू प में प्र भावर्त होकर प्र साद - युर् में एकदम बदि र् ई। प्र साद - युर् में कई पौराणणक नाटक लिखे र् ये। मैधथिीशरण र् ु प् त का ' नतिोिमा ', कौलशक का ' भीष्म तथा र् ोवर्न्दबल्िभ पंत का र् रमािा ' वर्शेष महत् र् पूणु हैं । ऐनतहालसक नाटकों क े अनतररक्त बेचन शमाु ' उग्र ' का ‘ महात्मा ईसा ', प्र े मचंद का कबुिा ', लमलिन्द का ' प्र ताप प्र नतज्ञा ', उदयशंकर भट्ट का वर्िमाददत्य ' तथा सेठ र् ोवर्न्ददास का ‘ हषु ' उल्िेखनीय हैं । राष्रीय धारा में प्र े मचंद का ‘ संग्राम ' उत् कृष् ट नाटक है । समस् या - प्र धान नाटकों में िक्ष्मीनारायण लमश्र क े ' सन्यासी ', ' राक्षस का मंददर ' और ' मुजक् त का रहस् य ' नर्ीन चेतना को िेकर उपजस् थत हुए । र् तुमान युर् की उिझती हुई समस् याओं क े कारण यह परंपरा वर्कलसत ही होती चिी र् ई। में प्र साद अनुर् ाद भी हुए । सत् य नारायण ने भर् भूनत कृत ' मािती माधर् ' और र् ु प् त जी ने भास क े ' स् र् प् नर्ासर्दिा ' का अनुर् ाद ककया। अंग्र े जी नाटकों में शेक् सवपयर क े ' ओथेिो ' का अनुर् ाद हुआ। रू सी िेखक टॉिस् टाय क े तीन नाटकों क े अनुर् ाद ' तिर् ार की करतूत ', ' अंधेरे में उजािा ' और ' जजंदा िाश ' क े नाम से प्र का लशत हुए। बेजल् जयम क े प्र लसद् ध कवर् माररस मेटरलिंक की दो छोटी नादटकाओं का दहन्दी - अनुर् ाद पदुमिाि पुन् नािाि बख्शी - युर् ने ककया। प्र सादजी स् र् यं एक युर् - सृष् टा थे। उनक े नाटकों का वर् षय बौद् धकािीन - स् र् णणुम अतीत है। उनक े नाटकों में द् वर् जेन् द्र िाि राय और रवर् बाबू की सी दाशुननकता और भार् ु कता लमिती नाटक ऐनतहालसक और सांस् कृनतक दृ जष् ट से वर् शेष महत् र् रखते हैं। नाटकीय वर्धान में प्र साद जी ने अपने नाटकों को सर्ुथा रू दढ़र्ादी पररपाटी से पृथिखा। उन् हों ने प्र ाचीनता क े स् र् रू प को ही ग्र हण ककया। हम उनक े नाटकों में प्र ाच्य और पाश्चा त् य नाट्य - किा का समन्र्य पाते हैं। नाटक - रचना की दृ जष् ट से भारतेन् दु युर् की अपेक्ष ा प्र साद युर् ज् यादा सफि है। प्र साद रहा। भारतेन् दु जी जहां अपने युर् क े नेता थे , र् हां प्र साद जी अपने युर् क े नेता न हो सक े , उनकी नाट्य - किा अपने समकािीन नाटककारों को समान रू प से प्र भावर् त न कर सकी। र् ै ज्ञ ाननक सुधारों और राजनीनतक हिचिों क े कारण प्र साद - युर् का किाकार स् र् तंि चेता हो र् यो था । प्र साद जी की रचनाएं व् यजक्तर्त साधना का पररणाम थी , इसलिए प्र साद अपने क्ष े ि में अक े िे ही रहे। प्र सादोत्त र युग (आधुतनक काल) - सन ् 1934 ई. से दहन्दी नाट्य - सादहत्य क े आधुननक युर् का प्र ारंभ होता है। इस युर् में नाट् य - सादहत्य क े नर्ीन प्र योर् हुए । फ्र ायि क े लसद् धांतों की धूम मची हुई थी। इस समय पाश् चात् य सादहत् य में एक नर् ीन युर् का प्र ारंभ हुआ। ऑस् कर र् ाइल् ि , र् जीननया र् ु ल् फ , एच.जी. र् े ल् स , र् ाल्सर्दी आदद की र चनाओं में प्र त् येक समस् या बुद् धधर् ाद तथा उपयोधर्तार्ाद की कसौटी पर कसी र् ई । नाट्य - सादहत्य में इव्सन क े समस्या - प्र धान नाटकों की धूम थी। ये सभी प्र भार् आधुननक काि में दहन् दी नाट् य - किा पर पड़े। सबसे पहिे िक्ष्मीनारायण लमश्र ने इन प्र भार्ों को अपने समस्या - प्र धान ना टकों में ग्र हण ककया। उनक े नाटकों में नारी समस् या को प्र मुख स् थान लमिा। आधुननक युर् क े प्र थम उत् थान - काि (सन ् 1934 - 1942 ई) में पौराणणक धारा क े अंतर्ुत भी लिखे र् ये । उदयशंकर भट्ट की ' राधा ' इस क्ष े ि में वर्लशष्ट रचना है। अन्य पौराणणक आख्यानों पर आधाररत उदयशंकर भट् ट कृत ' अंबा ', ' सार्र वर्जय ', ' मत्स्यर्ंधा ' और ' वर्श्र्ालमि ' उल्िेखनीय हैं । किा की दृ जष्ट से उग्र जी का ' र् ं र् ा का बेटा ' महत् र् पूणु नाटक है । ऐनतहालसक क्ष े ि में हररकृष् ण प्र े मी ने अधधकारपूणु नाटक लिखे । अन् य ऐनतहालसक नाटकों में उदयशंकर भट् ट का ' दाहर ' र् ोवर्ंदर्ल्िभ पंत क े ' राजमुक ु ट ' और ' अंत:पुर का नछद्र ' उपेन्द्रनाथ ' अश्क ' का ' जय - पराजय ', हररकृष् ण प्र े मी क े ' रक्षा - बंधन ', ' शजक्त - साधना ', ' प्र नतशोध ', ' स् र् प् न - भंर् ', ' आहुनत ' और सेठ र् ोवर्न्ददास का ' शलशर् ु प् त ' उल्िेखनीय हैं। पंत जी का ज् योत्स्ना ' नाटक प्र तीकर् ादी है । इस युर् में एकांकी नाटकों की रचना भी हुई। भुर् नेश् र् र का 6 एकांककयों का संग्रह ' कारर्ां ' क े नाम से प्र कालशत हुआ । रामक ु मार र् माु कृत ' पृ थ् र् ीराज की आंखें ', रेशमी टाई तथा ' चारुलमिा ', उदयशंकर भट् ट कृत , अलभनर् एकांकी ' तथा ' स् िी हृ दय ' और अश्क जी कृत ' देर्ताओं की छाया में ' वर् शेष रू प से महत् र् पूणु हैं। द् वर् तीय उत् थान काि (सन ् 1942 से) में नाटक क े क्ष े ि में ऐनतहालसक और सामाजजक नाटकों की रचना वर् शेष रू प से हुई। स् र् तंिता प्र ाप् त होने पर कनतपय राष्रीय भार्ना प्र धान नाटक भी लिखे र् ये। इस ददशा में सेठ र् ोवर्न्ददास क े ' पाककस्तान ' और ' लसद्धांत स् र् ातंत्र्य वर्शेष महत्र् क े हैं। ऐनतहालसक नाटकों में प्र े मी जी क े ' लमि ', ' वर्ष - पान ', ' उद्धार ' तथा ' शपथ ' िक्ष्मी नारायण लमश्र का ‘र्रुड़ध्र्ज ', ' र् त् सराज ' तथा ' दशाश्र्मेघ ', बेनीपुरी का ‘ संघलमिा ' और ' लसंहिवर्जय ', र् ृ ं दार् निाि र् माु का पूर् ु की ओर ', ' बीरबि ', ' झांसी की रानी ', ' कश्मीर का कांटा ', ' लशर्ाजी ', चतुरसेन शास् िी का ‘अजीतलसंह ' तथा '' राजलसंह ' आदद प्र लसद्ध हैं। बाि - सादह त् य में अच् छे एकांकी नाटकों की रचना हुई । रेडियो में भी प्र ाय: एकांकी नाटक प्र साररत होते रहते हैं। लशक्षा - संस्थाओं और सांस् कृनतक आयोजनों क े अर्सर पर दहन्दी रंर् - मंच की बढ़ ती हुई मांर् क े कारण हमारा एकांकी नाट्य - सादहत्य पयाुप्त वर्कलसत होता जा रहा है ।